• साहब! मजबूरी की कोई जात नहीं होती


•मजदूर को मजबूरी भी मारेगी और महामारी भी


अश्विनी शर्मा 'साहिल'
स्वतंत्र पत्रकार एवं
लेखक


साहब! मजबूरी की कोई जात नहीं होती वह पेट की आग मजहब और जात नहीं पहचानती ।कोराना महामारी से लड़ते देश के सामने प्रवासी मजदूरों की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही। भूख से बिखलते गरीबों का झुलसता पेट अपने परिवारों की चिंता  में  नियमों की
 हर उस सीमा को लांघ रहा है जो उनकी मजबूरी के आड़े आता है। मुम्बई में बांद्रा स्टेशन हो, सूरत हो या दिल्ली का यमुना विहार।  अचानक से हज़ारों लोग पहुंच जाते हैं। घरों को वापस जाने के लिए। मगर उन्हें हर बार शासन और प्रशासन का चाबुक मिलता है । कंकरीट के बने महलों में रहने वाले असंवेदनशील लोग अक्सर यह भूल जाते हैं कि उनके आसमान को छूते कंकरीट के महल की दरो दीवार पर इन्हीं मजदूरों के हाथों की छाप  साफ दिखाई पड़ती है। उनके
पसीने की बूंदों से कंकरीट के इन महलों की सजी दीवारें। गवाही देती हैं । फेसबुक पर हर रोज नई नई डिश के फोटो डालकर सैकड़ों लाइक पाने वाले कंकरीट के महलों में रहने वाले लोग क्या कोराना महामारी से लड़ते प्रवासी मजदूरों की कहानी को गम्भीरता से लेगें ।समझेंगे सकेंगे पेट की आग और धूप में झुलसती देह को।
सच तो यह भी है कि इनमें अधिकतर यूपी और बिहार के प्रवासी दिहाड़ी मजदूर शामिल रहे। ऐसे में सवाल तो राज्य सरकारों पर भी उठना लाजिमी हो जाता है। आखिर क्यों यह भीड़ अपने गांवों को छोड़ बड़े शहरों की तरफ रूख करते हैं?  कारण अकारण नहीं है, राज्य सरकारों की रोजगार के नये स्रोत ना पैदा करने की नाकामी का बोझ यह मजदूर बड़े शहरों में जाकर मजबूर कांधों पर ढोते हैं।

हकीकत तो यह है कि हमेशा
दोषी मजबूर ही माना जाता रहा है । विदेशों से फ्लाइटों में अमीरों को ढोने वाली सरकार ने यदि सही समय पर उचित व्यवस्था की होती तो प्रवासी मजदूरों के विरोध में यह आंधी नही चलती ।
बिना यह समझे कि आखिर क्यों ये लोग किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर घरों को लौट जाना चाहते हैं ? इनके सच से मुंह फेर लेना भी शायद इनके साथ बड़ी नाइंसाफी ही होगी। हां इन प्रवासियों का तरीका गलत है । लेकिन नियत में खोंट नहीं है। अगर यथार्थ की जमीन पर सच को खोजें तो आपको भी इनकी मजबूरी, इनका दर्द, इनकी लाचारी, इनकी बेबसी साफ नजर आएगी। 
    इसमें कोई दोराय नहीं कि इनके लिए अपने बच्चों की दो जून की रोटी जुटा लेना अपनी जान से भी बढ़कर है । इनके लिए ही क्यों, हर माँ-बाप के लिए यही सबसे प्राथमिक उद्देश्य होता है ।लाक डाउन में मजबूर मज़दूरों की क्या बात करें, साल भर तक बैठकर खा सकने की हैसियत रखने वाले बड़े बड़े धन्ना सेठ तक दुकानों की गद्दी संभालते देखे जा सकते हैं । हर शहर की गल्ला मंडी, कालोनियों - मोहलले की दुकानों से लेकर सरकारी राशन की दुकानों की ही मिसाल बताता हूँ । कोई ऐसा व्यापारी और आढ़ती होगा जो महामारी के तांडव के बीच धंधे और पैसे का मोह छोड़ पाया हो  ये जानते हुए भी कि कोई भी संक्रमित व्यक्ति उसको दुकान के गलले से श्मशान तक पहुंचाने के लिए सामने खड़ा होगा। लेकिन हर बार की तरह इस बार भी कोसा गया वही दबा कुचला मजबूर मजदूर। आखिर क्यों? 
      यह सिलसिला यहीं नहीं थमता है, यहीं से ही काला बाजारी ने भी जन्म लिया। रोजमर्रा हर परिवार में उपयोग में आने वाली चीजें हों या भूखे पेट की आग बुझाने वाले खाद्य पदार्थ। अचानक दाम दोगुने से लेकर तीन गुने तक हो गये। एक तो लाकडाउन से धंधा चौपट, नौकरियों से निकालने का दौर भी जारी, उस पर यह काला बाजारी। मजदूर नेपहले 21 दिन कैसे भी करके झेल लिया लेकिन अब उसे अगले 19 दिन काटना नामुमकिन लगा। वो अपने बाल-बच्चों के पापी पेट का मारा है। वो पहले अपने और अपनों के पेट की आग के बारे में सोंचेगा। सोचना लाजिमी भी है। आखिर जान हथेली पर रखकर रोटी जुटाना उसका रोज़ का काम जो ठहरा । उसको तो कोरोना भी मार सकता है और भूखा पेट भी।वहीं इससे इतर, उन चेहरों पर भी सवाल उठना लाजिमी है, जो चेहरे मेरा बूथ सबसे मजबूत का ढिंढोरा पीटते दरवाजे दर दरवाजे भटकते थे। आज वो भी महलों में बैठकर तमाशवीन दिखाई पड़ते हैं। मजबूर मजदूरों के खिलाफ मुखर हैं।  आखिर शासन प्रशासन से लेकर कंकरीट के महलों की चाहरदीवारी के अंदर बैठे सुरक्षित और धननासेठ का चाबुक पर मजदूर की जर्जर पीठ क्यों चलता है। हकीकत तो यह है कि आप उसकी मनोदशा का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हुजूर। इसलिए ठहरिये, सोचिये और थोड़े से संवेदनशील बन जाईये ।


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