इंसान का बार बार बीमार होना बंद, कैसे?

•क्या जानबुझकर करते हैं डाक्टर मरीजों के रोग के साथ खिलबाड़


अश्विनी शर्मा
पत्रकार एवं लेखक

जब से देश में कोराना महामारी ने इंसानों के शरीर को अपना घर बनाना  शुरू किया है तब से आम इंसानों के शरीर में विद्यमान कई आम बीमारी कम होने लगी है। अचानक ऐसा क्या हुआ कि आम इंसान का बार बार बीमार होना कम होने लगा।
लाकडाउन के बाद से हर शहर के तमाम अस्पतालों की ओर पी डी लगभग बंद ही है। आपातकालीन वॉर्ड में भी ज्यादा भीड़ भाड़ दिखाई नहीं पड़ती। आज लगभग हर शहर के सभी सरकारी या गैर सरकारी अस्पतालों में कोरोना पाजिटिव मरीजों की भीड़ दिखाई दे रही है। ऐसे में सवाल उठना भी लाजिमी ही है। आखिर अस्पतालों से आम बीमारियों से ग्रसित मरीजों की भीड़ गई कहां?
ऐसे में हर शहर में फैला अस्पतालों का जाल भी शक के घेरे में आना भी काफी हद तक बाजिब ही लगता है। क्या आपके जहन में यह सवाल नहीं उठ रहा कि जिन आम बीमारियों के मरीजों से अस्पताल पटे रहते थे। आज सुनसान कैसे नजर आ रहे हैं? आखिर कैसे कम हो गये हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, ब्रेन हैमरेज के बढ़ते मरीज? सच तो यह भी है कि श्मशान में आनेवाले मृतकों की संख्या भी घट गई। क्या कोराना महामारी के डर से दिल का दौरा, बिरेन हेमरेज, डायबिटीज, कैंसर जैसी आम बीमारी छूमंतर हो गईं?
क्या कोरोना ने सभी अन्य रोगों को नियंत्रित या नष्ट कर दिया है?
ऐसा बिल्कुल नहीं है ।दरअसल समाज के सामने हर शहर में फैले अस्पतालों के जाल का सच सामने आ रहा है। क्या ऐसा नहीं लगता कि जहाँ आम और खास में गंभीर रोग ना हो, वहाँ पर भी डॉक्टर उसे जानबूझ कर गंभीर स्वरूप दे रहे थे। धन की उगाही करना मुख्य पेशा जो ठहरा। सच तो यह है कि कोराना महामारी के बीच एक ऐसे सच से पर्दा उठ रहा है, जिससे हर आम आदमी रूबरू होता तो है लेकिन जानकर भी अक्सर ध्यान नहीं देता है। आज देश में कोराना महामारी ने प्रमाणित कर दिया कि देश में 3-5 % चिकित्सक ऐसे हैं जिनके अंदर आज भी इंसानियत जैसा शब्द बसता है। आज डाक्टर का मात्र एक ही उद्देश्य है कि एक बार रोगी उनकी चौखट पर आ जाए, जितना टारगेट है उतना धन तो कमा ही लेगा। सही मायने में देखा जाए तो डाक्टर आम और खास मरीजों को तब तक सही इलाज नहीं देता जब तक उस मरीज से धन कमाने का टारेगट पूरा नहीं हो जाता। अब चाहें मरीज जमीन बेंचे, दुकान बेंचे या मकान। यही बजह कि आज 95% डाक्टर छोटी सी बीमारी को भी इतना भयंकर रूप दे देते हैं कि उक्त मरीज महीनों तक अस्पताल में या तो भर्ती रहता है या ओपीडी में डक्टर की महंगी फीस के साथ अस्पताल के ही मेडिकल स्टोर से दवाइयां खरीद खरीद कर डाक्टर की कमीशनखोरी का हिस्सा बनता रहता है।
हकीकत से भले ही हम मुँह मोड़ लें, लेकिन सच सच ही रहता है। जब से भारत में कॉर्पोरेट हॉस्पिटल्स, टेस्टिंग लैब्स की बाढ़ आई, तभी से यह संकट गहराने लगा था। आपको ऐसा नहीं लगता कि महामारी ने डाक्टर के फैले जाल से नकाब हटा दिया। मामूली सर्दी, जुकाम और खांसी में भी हजारों रुपये की टेस्ट्स करने के लिए लोगों को मजबूर किया जा रहा था। छोटी सी तकलीफ में भी धड़ल्ले से ऑपरेशन्स किये जा रहे थे। मरीजों को यूँ ही ICU में रखा जा रहा था। बीमारी से ज्यादा भय उपचार से लगने लगा था। अस्पतालों में भर्ती मरीज से ज्यादा तकलीफदेह जिंदगी परिवार के सदस्य जीते हैं। इलाज के नाम पर धन की अंधाधुंध लूट चल रही थी। यही वजह है कि अब कोरोना आने के बाद लगे लाकडाउन में यह सब अचानक बन्द हो गया।
वहीं, इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि लाकडाउन के बीच समाज में एक सकारात्मक पहलु भी सामने आया। जिसके कारण भी आम और खास लोगों का बार बार बीमार होना कम हुआ। सकारात्मक बदलाव देखने को मिल रहा है।
कोरोना आने से लोगों के होटल में खाने पर भी अंकुश लग गया है। आज लोग होटल, रेसटोरेंट या सड़क के किनारे लगे जगह जगह तमाम फासट फूड के ठेलों पर पाबंदी लगने से घर का खाना पसंद करने लगे हैं। इस बदलाव ने भी कई तरह की बीमारियों को नियंत्रित करने में अहम भूमिका निभाई हैं।
लोगों के अनेक अनावश्यक खर्च बंद होने से सोच में भी परिवर्तन आया है। हर व्यक्ति जागृत हो रहा है। लाकडाऊन ने साबित कर दिया कि शांति से जीवन व्यतीत करने के लिए कितनी कम जरूरतें हैं। लेकिन आम और खास आदमी किस कदर भाग रहा है, बिलासता का जीवन जीने के लिए। यह अगर वास्तव में समझ में आ रहा हो, तो उसे बीमारियाँ, भोजन, और पैसे की चिंताओं से बहुत हद तक मुक्ति मिल सकती है।
आज ना कल  कोरोना पर तो नियंत्रण हो ही जाएगा, पर उससे हमारा जीवन जो आज नियंत्रित हो गया है, उसे यदि हम आगे भी इसी तरह नियंत्रण में रखें, आवश्यकताएँ कम करें,  तो जीवन वास्तव में बहुत सुखद एवं सुंदर हो जाएगा। साथ ही अस्पतालों में अंधाधुंध लूट का धंधे पर भी कुछ हद तक पाबंदी लगेगी।

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