••••• अमीरों के  शहर ,अपने नही होते•••••
••••• सच है  गरीबों के  सपने नही होते•••••


मैं
कांधे पर उठाए
तमाम दुश्वारियां
नंगे पैर
शहर आया था ।

मैनें
जरूरतों के जंगल में
इच्छाओं के बीज बोए
उनमें
सपनों की लगाई खाद
और
पसीने से उसे सींचा

मेरे बोए बीज
पेड़ बने
जिन पर लगे मेरी मेहनत के फल
मुझसे पहले
शहर भर ने खाए
मैं
उनकी जरूरतों का
पेड बन खडा रहा मूक
वो अपने स्वार्थ के
पत्थर मुझ पर बरसाते रहे
मैं
जरूरत का पेड था
लहुलुहान होकर भी
पत्थर खाता रहा

आखिर
मैने जरूरतों के जंगल में
इच्छाओं के
बीज बोए थे
तूने कहा था सही
अमीरों के
शहर में कोई अपना नही होता
सच कहा तूने
गरीबों का कोई ,सपना नही होता

मैं नहीं समझ सका तेरे जज्बात
नही सुनी, मैने तेरी बात
यह शहर है बाबू
यहां स्वार्थ का चलन है
जिसमें
भावनाओं का कुछ अपना नही होता
सच कहा तूने
गरीबों का कोई ,सपना नही होता

मुझे याद है
तुमने कहा था
शहर की चकाचौंध, चौडी सडकों से भली है अपने गाँव की बाट
उन बाटो से निकली खेतों की
पगडंडी
और
उन पगडंडियों से सटे खेतों की मैड
जहां से गुजरने पर होता है
अपनेपन का अहसास
यही फर्क है
शहर की भीड भरी सडकों और गांव की
सूनी
पगडंडियों में

क्योंकि
शहर के नौकरशाह
इंसानों के जंगल में
जरूरतों के बीज बोते हैं
जिस पर उनके अनुसार पकते है फल
जिन्हें वह बनाते हैं
अपना आहार
जो फल पकते नही
वह झाड़ दिए जाते हैं
सच कहा तूने
गरीबों का कोई सपना नही होता

मैं नहीं समझ सका
तेरे जज्बात
नही सुनी
मैने तेरी बात
यह शहर है बाबू
यहां स्वार्थ के शोर में
निस्वार्थ भावनाओं को दबना पड़ता है
काश
शहर अपने होते .....


देवेन्द्र सिसोदिया ' देव मित्र '
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